सोमवार, 29 अगस्त 2011

केले की उन्नत खेती


दुनिय भर में केला एक महत्वपूर्ण फसल है। भारत में लगभग 4.9 लाख हेक्टेयर में केले की खेती होती है जिससे 180 लाख टन उत्पादन प्राप्त होता है। महाराष्ट्र में सबसे अधिक केले का उत्पादन होता है। महाराष्ट्र के कुल केला क्षेत्र का 70 फीसदी अकेले जलगांव जिले में है। देशभर के कुल केला उत्पादन का लगभग 24 फीसदी भाग जलगांव जिले से प्राप्त होता है। केले को गरीबों का फल कहा जाता है। केले का पोषक मान अधिक होने के कारण केरल राज्य एवं युगांडा जैसे देशों में केला प्रमुख खाद्य फल है। केले के उत्पादों की बढती मांग के कारण केले की खेती का महत्व भी दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।

केला उत्पाद निम्न है : केला चिप्स, केला फिग, केला आटा, केला पापड, केला हलवा, केला जूस, केला पल्प, केला फल केनिंग, केला टाफी, केला मदिरा, केला शेम्पेन इत्यादि सामग्रियां तेयार की जाती हैं।
जलवायुः केला उत्पादन के लिये उष्ण तथा आर्द्र जलवायु उपयुक्त होती है। जहँा पर तापक्र्रम 20-35 डिग्री सेन्टीग्रेड के मध्य रहता है वहाँ पर केले की खेती अच्छी तरह से की जा सकती है। वार्षिक वर्षा 150-200 से.मी. समान रूप से वितरित होना चाहिये। शीत एवं शुष्क जलवायु में भी इसका उत्पादन होता है। परंतु पाला एवं गर्म हवाओं (लू) आदि से काफी क्षति होती है।
भूमिः केले की खेती के लिए बलुई से मटियार दोमट भूमि उपयुक्त होती है। जिसका पी. एच मान 6.5-7.5 एवं उचित जल निकास का होना आवश्यक हैं। केले की खेती अधिक अम्लीय एवं क्षारीय भूमि में नही की जा सकती है। भूमि का जलस्तर 7-8 फीट नीचे होना चाहिये।
केले की व्यवसायिक प्रजातियाः
(1) ड्वार्फ केवेन्डिस (भुसावली, बसराई, मारिसस, काबुली, सिन्दुरानी, सिंगापुरी जहाजी, मोरिस) यह प्रजाति म.प्र., महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार एवं कर्नाटक की जलवायु के लिये बहुत उपयुक्त पायी गयी है। इस प्रजाति से चयन कर गनदेवी सिलेक्शन (हनुमान) अथवा पाडर्से नाम की जातियां विकसित की गई हैं जिनकी उत्पादन क्षमता 20-25 कि. ग्रा. प्रति पौधा है। इस प्रजाति का पौधा बोना किस्म का 1.5 - 1.8 मीटर ऊंचा होता है फल बडे, मटमैले पीले या हरेपन लिये हुये पीला होता है। तना मौटा हरा पीलापन लिये हुये होता है। पत्तियां चौड़ी एवं पीली होती हैं औसतन 9-10 हेण्ड प्रति बंच (गुच्छा) होता है। औसत फिंगर की लग्बाई 20 सें.मी. एवं मोटाई 10 से.मी. होती है।
(2) रोबस्टा (एएए) इसे बाम्बेग्रीन, हरीछाल, बोजीहाजी आदि नामो से अलग अलग प्रांतो मे उगाया जाता है इस प्रजाति को पश्चिमी दीप समूह से लगाया गया है। पौघों की ऊंचाई 3-4 मीटर, तना माध्यम मोटाई हरे रंग का होता है। प्रति पौधे मे 10-19 हेण्ड्स मे फर्टाइल पुष्प होते हैं जिनमें हरे रंग की फिंगर विकसित होती है । बंच का वजन औसतन 25-30 किलो ग्राम होता है। फल अधिक मीठे एवं आकर्षक होते हैं। फल पकने पर चमकीले पीले रंग का हो जाता है। यह प्रजाति सिंगाटोक (लीफ स्पॉट) बीमारी से काफी प्रभावित होती है। फलों की भंडारण क्षमता कम होती है।
(3) रस्थली (सिल्क एएबी): इस प्रजाति को मालभोग अमृत पानी सोनकेला रसवाले आदि नामों से विभिन्न राज्यों मे व्यावसायिक रूप से उगाया जाता है पौधे की ऊंचाई 2.5-3.0 मीटर होती है पुष्पन 12-14 माह के बाद ही प्रारंभ होता है। फल (फिंगर) चार कोण बाले हरे, पीले रगं के मोटे होते हैं। छिलके पतला होते है जो पकने के बाद सुनहरे पीले रगं के हो जाते हैं। केले का बंच 15 से 20 किलोग्राम का होता है। फल अधिक स्वादिष्ट सुगन्ध पके सेब जैसी कुछ मिठास लिये हुये होता है। केले का छिलका कागज की तरह पतला होता है इस प्रजाति की भण्डारण क्षमता कम होती है।
(4) पूवन (एबी) : इसे चीनी चम्पा, लाल वेल्ची और कदली कोडन के नाम से जाना जाता है इसका पौघा बेलनकार मध्यम ऊंचाई का 2.25 - 2.75 मीटर होता है। रोपण के 9-10 महीने में पुष्पण प्रांरभ हो जाता है। इसमें 10-12 हेण्डस रहते हैं। प्रत्येक हेंड में 14-16 फिंगर आती है, फल छोटे बेलनाकार एवं उभरी चोंच वाले होते हैं। फल का गूदा हाथी के दांत के समान सफेद एवं ठोस होता है। इसे अधिक समय तक भण्डारित किया जा सकता है। फल पकने के बाद भी टूटकर बंच से अलग नहीं होते।
(5) करपूरावल्ली (एबीबी) : इसे बोन्था, बेन्सा एवं केशकाल आदि नामों से जाना जाता है। यह किस्म किचन गार्डन में लगाने लिए उपयुक्त पायी गयी है। इसका पौधा 10-12 फीट लम्बा होता है। तना काफी मजबूत होता है। फल गुच्छे में लगते है। फल पर तीन रिंज (उभार) होते हैं। एक पौधे में 5-6 पंजे बनते हैं जिसमें 60-70 फल होते हैं। इनका वजन 18-20 कि. ग्राम. होता है। फल मोटे नुकीले और हरे पीले रंग के होते हैं। यह चिप्स एवं पाउडर बनाने के लिये सबसे उपयुक्त प्रजाति है।
(6) नेन्द्रन (प्लान्टेन एएबी) : इसकी उत्पत्ति दक्षिण भारत से हुई है। इसे सब्जी केला या रजेली भी कहते हैं। इसका उपयोग चिप्स बनाने में सर्वाधिक होता है। इसका पौधा बेलनाकार मध्यम मोटा तथा 3 मीटर ऊंचाई वाला होता है। गुच्छे में 4-6 हेण्डस और प्रत्येक हेण्ड में 8-14 फिंगर होती हैं। फल 20 से.मी. लम्बा, छाल मोटी तथा थोड़ा मुड़ा एवं त्रिकोणी होता है। जब फल कच्चा होता है तो इसमें पीलापन रहता है। परंतु पकने पर छिलका कड़क हो जाता है। इसका मुख्य उपयोग चिप्स एवं पाउडर बनाने के लिये किया जाता है।

केले की उन्नत संकर प्रजातियां :-
(1) एच-1 (अग्निस्वार + पिसांग लिलिन):- यह लीफ स्पॉट फ्यूजेरियम बीमारी निरोधक कम अवधि वाली उपर्युक्त किस्म है। यह बरोइंग सूत्र कृमि के लिए अवरोधक है। इस संकर प्रजाति का पौधा मध्यम ऊंचाई का होता है और इसमें लगनेवाले बंच का वजन अमूमन 14 से 16 किलोग्राम का होता है। फल लम्बे, पकने पर सुनहरे या पीले रगं के हो जाते हैं। पकने पर इसमें हल्का खट्टा तथा मीठी खट्टी महक आती है। यह किस्म जड़ी फसल के लिये उपयुक्त है। तीन वर्ष के फसल चक्र में चार फसलें ली जा सकती हैं।
रोपण सामग्री (फसल उत्पादन तकनीक) : केला रोपण हेतु तलवारनुमा आकार के अतंभूस्तरीय जिनकी पत्तियां संकरी होती हैं, जिनको बीज के उपयोग मे लाया जाता है। तीन माह पुराना सकर्स जिसका वजन 700 ग्राम से 1 कि.ग्राम तक हो, रोपण के लिए उपर्युक्त होते हैं।
वर्तमान में केले के टिश्यूकल्चर पौधे व्यावसायिक रूप से उत्पादकों द्वारा उपयोग में लाये जा रहे हैं। क्योंकि इनको जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा बीमारी रहित उत्तम गुणवत्ता वाले अधिक उत्पादक मातृ वृक्षों से उतक निकालकर प्रवर्धित किया जाता है। टिशु कल्चर पौधे टू-टू दि टाईप जिनोटाइप चयनित उतक को विट्र्रोकल्चर पद्धति से वर्धित किया गया है। टिशु पौधों का स्वभाव दैहिक होता है और इसकी फसल एक साथ परिपक्व होती है। इसकी जड़ी (रेटून) से भी अच्छा उत्पादन प्राप्त होता है।
भूमि की तैयारी एवं रोपण पद्धति : खेत की जुताई कर मिट्टी को भूरि-भूरि बना लेना चाहिये जिससे भूमि का जल निकास उचित रहें तथा कार्बनिक खाद ह्यूमस के रूप मे प्रचुर मात्रा में हो इसके लिये हरी खाद की फसल ले।
पौध अंन्तरालः कतार से कतार की दूरी 1.8 मीटर पौधे से पौधे की दूरी 1.5 मीटर रखते हैं तथा पौधा रोपण के लिये 45 X 45 X 45 सें. मी. आकार के गड्डे खोदे प्रत्येक गडडे मे 12-15 किग्रा. अच्छी पकी हुई गोबर या कम्पोस्ट खाद रोपण के पूर्व साथ ही प्रत्येक गडडे में 5 ग्राम थिमेट दवा मिटटी में मिला दें।
बीज उपचार:- प्रकंदों को उपचार के पूर्व साफ करें तथा जडों को प्रथक कर दें 1 प्रतिशत बोर्डो मिक्चर तैयार कर प्रकंदों को उपचारित करें इसके बाद 3-4 ग्राम बाबिस्टीन प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर प्रकंदों को 5 मिनट तक उपचार करें।
रोपण का समयः
1. मृग बहार (ग्रीष्म) अप्रैल से मई
2. कंदा बहार अक्टूबर
कांदा बहार की अपेक्षा मृग बहार की (ग्रीष्म) की फसल से अधिक उत्पादन मिलता है।
खाद एवं उर्वरक की मात्रा एवं देने की विधिः केले की फसल अपने पूरे जीवन चक्र में रोपण 5 - 7 माह के अन्दर प्रति पौधा नेत्रजन 200 ग्राम, स्फुर 40-50 ग्राम ओर पोटाश 250-300 ग्राम, कम्पोस्ट खाद 5 कि.ग्रा. एवं कपास या महुए की खली प्रति पौघा के हिसाब से दें। कम्पोस्ट खाद एवं फास्फोरस की पूर्ण मात्रा पौधा लगाते समय नत्रजन एवं पोटाश एक माह के अन्तराल से सात से आठ माह के अन्दर सात से आठ बार मे दें ।
अन्तरवर्तीय फसल :
मृग बहारः इस फसल की रोपाई मई जून महीने में की जाती है। जिसमें केले के साथ , मूंग, भिण्डी, टमाटर, मिर्च, बैग़न इत्यादि फसले लें सकते हैं।
कांदा बहारः इस बहार के अन्तर्गत आलू, प्याज, टमाटर, धनियाँ, बैंग़न की फसलें ली जा सकती हैं।
केले की फसल में सस्य क्रियाएः केले की फसल में पौधों की जड़ों पर मिटटी चढ़ाना आवश्यक है। क्योंकि केले की जड़ें अधिक गहरी नहीं जाती हैं। इसलिये पौधों को सहारा देने के लिए मिटटी चढ़ाना जरूरी है। कभी कभी कंद बाहर आ जाते हैं। जिससे पौधे की वृध्दि रुक जाती है। इसलिए मिटटी चढ़ाना जरूरी है।
मल्चिंगः जमीन से जल वाष्पीकरण तथा खरपतवार द्वारा हास होता है। तथा भूमि से पोषक तत्व भी खरपतवारों द्वारा लिये जाते हैं। भूमि जल के वाष्पीकरण एवं खरपतवारों के नियंत्रण हेतु प्लास्टिक सीट पौधे की जड़ों के चारों ओर लगाने से उपरोक्त क्षति से बचाव हो जाता है। इसके अतिरिक्त गन्ने के छिलके, सूखी घास, सूखी पत्तियॉ एवं गुड़ाई करने से जल हास कम हो जाता है। प्लास्टिक की काली पोलीथिन की मल्चिंग करने पर उत्पादकता में वृध्दि होती है।
अतंभूस्तरी (सकर्स) निकालनाः जब तक केले के पौधे में पुष्प गुच्छ न निकल पाएं तब तक सकर्स को नियमित रूप से काटते रहे। पुष्पण जब पूर्ण हो जावे तो एक सकर्स को रखा जाए तथा शेष को काटते रहे। यह ध्यान रखे कि एक वर्ष की अवधि तक एक पौधे के साथ एक सर्कस को ही बढ़ने दिया जाए वह जड़ी (रेटून) की
फसल के रूप में उत्पादन देगा, बंच के निचले स्थान में जो नर मादा भाग है इस काटकर उसमें
बोर्डोपेस्ट लगा दिया जाए।

सहारा देनाः जिन किस्मों में बंच का वजन काफी हो जाता है। तथा स्युडोस्टेंम के टूटने की संभावना रहती है। इसे बल्ली का सहारा देना चाहिए, केले के पत्ते से उसके डंठल को ढ़क दिया जाए।
पौधों को काटनाः केला बंच पुष्पण से 110 से 130 दिनों में काटने योग्य हो जाते हैं। बंच काटने के पश्चात पौधों को धीरे-धीरे काटें, क्योंकि इस क्रिया से मातृप्रकंद के पोषक तत्व जड़ी बाले पोधे को उपलब्ध होने लगते है। फसलस्वरूप उत्पादन अच्छा होने की संभावना बढ़ जाती है।
जलप्रबंधनः केले की फसल को अधिक पानी की आवश्यकता होती है। केले के पत्ते बड़े चौड़े होते हैं। एक पौधे के पत्तों का कुल क्षेत्रफल 50-60 वर्गमीटर होता है। इसलिए बड़े पैमाने पर पानी की वाष्पीकरण उत्सर्जन होने से केले को अधिक पानी की आवश्यकता होती है। केले के पूर्ण वर्धित झाड़ों को प्रतिदिन 12-15 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। ड्रिप पध्दति से सिचाई करने पर 60 प्रतिशत पानी की बचत होती है।
फसल संरक्षणः
1 पनामा बिल्ट या उकठा रोगः यह बीमारी फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम नामक फफूंद के द्वारा फेलती है पौधे की पत्तियां मुरझाकर सूखने लगती है केले का पूरा तना फट जाता है प्रारंभ में पत्तियां किनारों से पीली पडती हैं प्रभावित पत्तियां डण्ठल से मुड़ जाती है प्रभावित पीली पत्तियां तने के चारों ओर स्कर्ट की तरह लटकती रहती है आधार पर (निचले भाग) तने का फटना बीमारी का प्रमुख लक्षण है। बैस्कूलर टिश्यू जड़ों और प्रकंद में पीले, लाल एवं भूरे रंग में परिवर्तित हो जाते है पौधा कमजोर हो जाता है। जिसके कारण पुष्पन फलन नहीं होता है। इस बीमारी की फफूंद जमीन में अनुकूल तापक्रम, नमी एवं पी. एच. की स्थिति में लम्बी अवधि तक रहता है।
नियंत्रणः
1- गन्ना एवं सूरजमुखी के फसल चक्र को अपनाने से बीमारी का प्रकोप कम हो जाता है।
2- सकर्स को लगाने के पूर्व 0.2 प्रतिशत बाबिस्टीन के धोल में 30 मिनट तक डुबोकर लगाना चाहिए।
3- ट्राइकोडर्मा बिरिडी जैविक फफूंद नाशक का उपयोग करना चाहिए।
4- जिलेटिन केप्सूल में 50 ग्राम बाबिस्टीन भरके केप्सूल अप्लीकेटर के सहारे कंद मे 45 डिग्री कोण पर रखने से बीमारी पर अच्छा नियंत्रण देखा गया है।

2. लीफ स्पाट (सिंगाटोका) : यह बीमारी स्यूडोसर्कोस्पोरा म्यूसी फफूंद के कारण होती है। इस बीमारी के प्रकोप से पत्तियों में क्लोरोफिल की कमी हो जाती हैं। क्योंकि टिशू हरे से भूरे रंग के हो जाते हैं। धीरे-धीरे पौधे सूखने लगते है। प्रारंभ में पत्तियों पर छोटे धब्बे दिखायी देते हैं। फिर यह पीले या हरी पीली धारियों में बदल जाते हैं। जो पत्तियों को दोनों सतहो पर दिखायी देते हैं अंत में यह धारियां भूरी एवं काली हो जाती हैं। धब्बों के बीच का भाग सूख जाता है।

नियंत्रणः प्रभावित सूखी पत्तियों को काटकर जला देना चाहिए। फफूंद नाशक दवाऐं जैसे डाइथेन एम-45, 1250 ग्राम /हेक्टेअर या बाबिस्टीन 500 ग्राम / हेक्टेयर या प्रोपीक्नोजोल 0.1 फीसदी का छिड़काव टिपॉल के साथ अक्टूबर माह से 3-4 छिड़काव 2-3 सप्ताह के अतंराल से करने से बीमारी पर नियंत्रण रखा जा सकता है।

3. एन्थ्रेक्नोजः यह बीमारी कोलेट्रोट्राईकम मुसे नामक फंफूद के कारण फैलती है। यह बीमारी केले के पौधे में बढ़वार के समय लगती है। इस बीमारी के लक्षण पौधो की पत्तियों, फूलों एवं फल के छिलके पर छोटे काले गोल धब्बों के रूप मे दिखाई देते हैं। इस बीमारी का प्रकोप जून से सितम्बर तक अधिक होता है क्योंकि इस समय तापक्रम ज्यादा रहता है।

नियत्रणः
1- प्रोक्लोराक्स 0.15 प्रतिशत या कार्वेन्डिज्म 2 ग्राम प्रति लीटर पानी का धोल बनाकर छिड़काव करें।
2- केले को 3/4 परिपक्वता पर काटना चाहिये।
4 शीर्षगुच्छारोगः (बंचीटाप) : पत्तियों की भीतरी मिडरिब की द्वीतियक नसों के साथ अनियमित गहरी (मोर्सकोड) धारियां शुरू के लक्षण के रूप मे दिखाई देती हैं। ये असामान्य लक्षण गहरे रंग की रेखाओं मे एक इंच या ज्यादा लम्बे अनियमित किनारों के साथ होते हैं। पौधों का ऊपरी सिरा एक गुच्छे का रूप ले लेता है। पत्तियां छोटी व संकरी हो जाती हैं। किनारे ऊपर की ओर मुड़ जाते हैं। डंठल छोटे व पौधे बौने रह जाते हैं और फल नहीं लगते हैं। इस बीमारी के विषाणु का वाहक पेन्टोलोनिया नाइग्रोनरवोसा नामक माहू है।
नियत्रणः 1. रोग ग्रसित पौधों को निकालकर नष्ट कर देना चाहिये।
2. रोग वाहक कीट नियंत्रण के लिये मेटामिस्टॉक्स 1.25 मि.ली. या डेमेक्रान 0.5 मि.ली. दवा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये।
3. रोग रहित सकर्स का चुनाव करें।
5. केले का धारी विषाणु रोगः इस बीमारी के कारण प्रारंभ में पौधों की पत्तियों पर छोटे पीले धब्बे जो बाद में सुनहरी पीली धारियों मे बदल जाते हैं। क्लोरोटिक धारियां पत्तियों के लेमिना पर काला रूप लिये नेक्रोटिक हो जाती हैं। घेर का बहार न निकलना बहुत छोटी घेर निकलना एवं फलों में बीज का विकास प्रभावित पौधों के प्रमुख लक्षण हैं। इस रोग का विषाणु मिलीबग एवं प्लेनोकोकस सिट्री के द्वारा फैलाया जाता है।
नियंत्रणः प्रभावित पौधों को निकालकर नष्ट कर देना चाहिये तथा मिलीबग के नियंत्रण के लिये कार्बोफ्यूरान की डेढ़ किलो ग्राम मात्रा प्रति एकड़ के हिसाब से जमीन में डालें।
कीट एवम् उनका नियंत्रणः
(1) केला प्रकंद छेदक (राइजोम बीबिल) : यह कीट केले के प्रकंद में छेद करता है। इसको इल्ली प्रकंद के अन्दर छेद करती है। परन्तु वह बाहर से नहीं दिखायी देती है। कभी-कभी केले के स्यूडोस्टेम में भी छेद कर देता है। इन छिद्रों में सड़न पैदा हो जाती है।
नियंत्रण : प्रकंदों को लगाने से पहले 0.5 फीसदी मोनोक्रोटोफास के धोल में 30 मिनट तक डुबोकर उपचारित करें। अत्याधिक प्रकोप होने पर 0.03 फीसदी फास्फोमिडान के घोल का छिड़काव करें।
(2) तना भेदकः तना भेदक कीट का मादा वयस्क पत्तियों के डंठलों में अण्डे देती है। जिससे इल्ली निकलकर पत्तियों एवं तने को खाती है। प्रारंभ में पौधे के तने से रस निकलता हुआ दिखायी देता है। फिर कीट की लार्वा द्वारा किये गये छिद्र से गंदा पदार्थ पत्तियों के डंठल पर बूंद-बूंद टपकता है जिससे तने के अन्दर निकल रहे पुष्प प्रोमोडिया शुष्क हो जाता है। इसका प्रकोप वर्ष भर होता है।
नियंत्रणः 1. मोनोक्रोटोफास की 150 मि.ली. मात्रा 350 मि.लीटर पानी मे घोलकर तने में इंजेक्ट करें।
2. घेर को काटने के बाद पौधों को जमीन से काटकर कीट नाशक दवा कार्वोरिल 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिडकाव करने से अंडे व कीट नष्ट हो जाते हैं।
(3) माहूः यह कीट केले की पत्तियों का रस चूसकर उन्हें हानि पहुंचाता है। तथा बंचीटाप वायरस को फेलाने का प्रमुख वाहक है। इस माहू का रंग भूरा होता है। जो पत्तियों के निचले भाग या पौधे के शीर्ष भाग से रस चूसती है।
नियत्रणः फास्फोमिडान 0.03 फीसदी या मोनोक्रोटोफास 0.04 फीसदी के घोल का छिडकाव करें।
(4) थ्रिप्सः तीन प्रकार की थ्रिप्स केला फल (फिंगर) को नुकसान पहुंचाती है। थ्रिप्स प्रभावित फल भूरा बदरंग, काला तथा छोटे-छोटे आकार के आ जाते हैं। यदपि फल के गूदे पर इसका प्रभाव नहीं पड़ता पर इनका बाजार भाव ठीक नहीं मिलता।
नियंत्रणः मोनोक्रोटोफास 0.05 फीसदी का घोल बनाकर छिडकाव करें तथा मोटे कोरे कपड़े से बंच को ढंकने से भी कीट का प्रकोप कम होता है।
(5) लेस विंगस बगः यह कीट सभी केला उत्पादक क्षेत्रों में पाया जाता है। इस कीट से प्रभावित पत्तियां पीली पड़ जाती हैं। पत्तियों के निचले भाग में रहकर रस चूसती हैं।
नियंत्रणः मोनोक्रोटोफास की 1.5 मि.ली. दवा प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करें।
(6) पत्ती खाने वाली इल्लीः इस कीट की इल्ली नये छोटे पौधों की बिना खुली पत्तियों को खाती है। पत्तियों मे नये छेद बना देती है।
नियंत्रणः थायोडान 35 ई. सी. का छिडकाव (1.5 मि. ली. प्रति लीटर पानी) पत्तियों पर करने से प्रभावी नियंत्रण देखा गया है।

अनार की मिश्रित खेती से बढ़ती है आमदनी


कृषि अनुसंधानों में यह बात सामने आई है कि अगर किसान खरीफ की फसलों के साथ इंटरक्रॉपिंग सिस्टम में दूसरी फसलें भी उगाएं तो जमीन की उर्वरा शक्ति बेहतर रहती है। इससे ज्यादा आमदनी भी होगी।

कृषि वैज्ञानिक किसानों को मल्टी क्रापिंग यानी एक साथ दो या इससे अधिक फसलें उगाने की सलाह दे रहे हैं। इस कवायद का उद्देश्य परंपरागत खेती को बढ़ावा देना और जमीन की उर्वरा शक्ति को बढ़ाना है। वैसे भी अब तक के अनुसंधानों से यह साबित हो चुका है कि हर साल एक ही फसल की बुवाई घातक होती है। इसके मद्देनजर खरीफ सीजन के दौरान दूसरी फसलों के साथ अनार की भी खेती की सकती हैं। इससे अतिरिक्त आमदनी का जरिया तो बनेगा ही, जमीन की उर्वरा शक्ति में भी सुधार होगा। साथ ही यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि काश्तकारों के लिए खेती आज भी निश्चित आय का साधन नहीं बन पाया है। कभी मौसम की मार से पैदावार घट जाती है तो कभी अधिक उत्पादन के कारण बाजार में दाम जमीन पर पहुंच जाते हैं। ऐसे में थोड़ा व्यावसायिक नजरिया अपनाते हुए खेत के एक हिस्से में फलों के पौधे लगाना एक बेहतर सोच साबित हो सकती है। मसलन पांच हेक्टेयर के खेत में एक हैक्टेयर में फल के पौधे लगाकर कई सालों तक कमाई की जा सकती है। चूंकि आगामी सीजन खरीफ का है और अनार के पौधों को अगस्त में लगाया जा सकता है। ऐसे में नई विधि के साथ अनार के पौधे लगाकर मुनाफा और बढ़ाया जा सकता है।

अनार की पैदावार
अनार का पौधा तीन-चार साल में पेड़ बनकर फल देने लगता है और एक पेड़ करीब 25 वर्ष तक फल देता है। साथ ही अब तक के अनुसंधान के मुताबिक प्रति हैक्टेयर उत्पादकता बढ़ाने के लिए अगर दो पौधों के बीच की दूरी को कम कर दिया जाए तो प्रति पेड़ पैदावार पर कोई असर नहीं पड़ता है। लेकिन ज्यादा पेड़ होने के कारण प्रति हैक्टेयर उत्पादन करीब डेढ़ गुना हो जाता है। परंपरागत तरीके से अनार के पौधों की रोपाई करने पर एक हैक्टेयर में 400 पौधे ही लग पाते हैं जबकि नए अनुसंधान के अनुसार पांच गुणा तीन मीटर में अनार के पौधों की रोपाई की जाए तो पौधों के फलने-फूलने पर कोई असर नहीं पड़ेगा और एक हैक्टेयर में छह सौ पौधे लगने से पैदावार डेढ़ गुना तक बढ़ जाएगी।

एक पौधे से कितने फल
एक सीजन में एक पौधे से लगभग 80 किलो फल मिलते हैं। इस हिसाब से बीच की दूरी कम करके पौधे लगाने से प्रति हैक्टेयर 4800 क्विंटल तक फल मिल जाते हैं। इस हिसाब से एक हैक्टेयर से आठ-दस लाख रुपये सालाना आय हो सकती है। लागत निकालने के बाद भी लाभ आकर्षक रहेगा। नई विधि को काम लेने से खाद व उर्वरक की लागत में महज 15 से 20 फीसदी की बढ़ोतरी होती है जबकि पैदावार 50 फीसदी बढ़ने के अलावा दूसरे नुकसानों से भी बचाव होता है। पौधों के बीच की दूरी कम होने से माइक्रोक्लाइमेट के कारण तेज गर्मी और ठंडक दोनों से पौधों का बचाव होने के साथ बर्ड डेमेज यानी पक्षियों से फलों को होनेवाला नुकसान भी कम हो जाता है। राजस्थान के कुछ किसानों ने इस विधि को अपना कर देखा है। इसके बेहतर परिणाम मिले हैं।
अनार के पौधों को लगाने का सही समय अगस्त या फरवरी-मार्च होता है। ऐसे में खरीफ सीजन के दौरान अगस्त में अनार के पौधों की रोपाई करते हैं तो तीन-चार साल बाद पेडों पर फल देना शुरू कर देंगे और एक बार निवेश का लाभ कई सालों तक मिलता रहेगा।

रोगों से बचाव का तरीका
अनार के पौधों में फल छेदक और पौधों को सड़ाने वाले कीड़े लगने का खतरा रहता है। इसके लिए कीटनाशक के छिड़काव के साथ पौधे के आसपास साफ-सफाई रखने से भी कीड़ो से बचाव होता है। अनार के पौधों के लिए गर्मियों का मौसम तो प्रतिकूल नहीं होता, लेकिन सर्दियों में पाले से पौधों को बचाने के लिए गंधक का तेजाब छिड़कते रहना जरूरी है। नियमित रूप से पानी देने से पाले से बचाव होने से पौधे जलने से बच जाते हैं। सर्दी के मौसम में फलों के फटने की आशंका ज्यादा होती है। इसलिए पौधों का सर्दी से बचाव करके फलों को बचाया जा सकता है। इस तरह खरीफ में दूसरी फसल के साथ अनार के पौधे लगाकर किसान कमाई का एक अतिरिक्त जरिया तैयार कर सकता है।

खाद का प्रयोग
अनार के फल जुलाई-अगस्त में लेने के लिये जून माह में 3 वर्षीय पौधों में 150 ग्राम, चार वर्षीय पौधों में 200 ग्राम, पांच या अधिक वर्षीय पौधों में 250 ग्राम यूरिया प्रति पौधा देकर सिंचाई करें। छोटे पौधों में भी यूरिया इसी माह में दें। एक वर्षीय में 50 ग्राम व दो वर्षीय में 100 ग्राम यूरिया प्रति पौधा देकर सिंचाई करें। वैसे जुलाई-अगस्त में अनार की उपज भी अच्छी होती है तथा बाज़ार भी ठीक रहता है।

पौधे के रोपण का समय
अनार के पौधों को लगाने का उपयुक्त समय भी अगस्त या फरवरी-मार्च होता है। किसान अगस्त में अनार के पौधों की रोपाई करते हैं तो तीन-चार साल बाद पेड़ों पर फल देना शुरू कर देंगे और एक बार किए गए निवेश का लाभ कई सालों तक मिलता रहेगा। अनार के पौधे लगाने में अनुसंधानकर्ताओं द्वारा खोजी गई नई विधि को काम में लिया जाए तो मुनाफा और बढ़ सकता है।
पौधों में दूरी
प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बढ़ाने के लिए अगर दो पौधों के बीच की दूरी को कम कर दिया जाए तो पौधों की बढ़वार पर कोई असर नहीं पड़ेगा और उपज भी करीब डेढ गुना बढ़ जाएगी। अनार का एक पौधा पांच मीटर लंबे व इतने ही चौड़े भूमि के हिस्से में लगाया जाता है। पौधों के बीच की दूरी कम होने से माइक्रोक्लाइमेट के कारण तेज गर्मी और ठंडक दोनों से पौधों का बचाव होने के साथ बर्ड डेमेज यानी पक्षियों से फलों को होने वाला नुकसान भी कम हो जाता है। गर्मियों में पक्षियों से छोटे पौधों को बचाने की जरूरत होती है। पौधे जब करीब डेढ़ फुट तक ऊंचे हों तो उन्हें नेट से ढंकना चाहिए।
परंपरागत तरीके से अनार के पौधों की रोपाई करने पर एक हेक्टेयर में 400 पौधे ही लग पाते हैं जबकि नए अनुसंधान के अनुसार पांच गुणा तीन मीटर में अनार के पौधे की रोपाई की जाएं तो पौधों के फलने-फूलने पर कोई असर नहीं पड़ेगा और एक हेक्टेयर में छह सौ पौधे लगने से उपज डेढ गुना तक बढ़ जाएगी।
एक सीजन में एक पौधे से लगभग 80 किलो फल मिलते हैं। इस हिसाब से परंपरागत तरीके से अनार की खेती करने पर एक हेक्टेयर में 3200 क्विंटल ही अनार उत्पादन हो पाएगा जबकि बीच की दूरी कम कर पौधे लगाने से प्रति हेक्टेयर उपज बढ़कर 4800 क्विंटल हो जाएगी।

बीटी बैंगन से मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण को खतरा


बीटी बैंगन को लेकर लंबे समय से बहस चल रही है और सरकार और समाज में काफी जंग छिड़ चुकी है। वैज्ञानिक और जानकार इसे मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक मान रहे हैं और इसी वजह से इसका व्यापक विरोध होता रहा है। देश में इसे अपनाने को लेकर सरकार पर विदेशी कंपनियों की तरफ से काफी दबाव पड़ा। दूसरी ओर देश के भीतर भी इस बैंगन के खिलाफ सरकार पर भारी दबाव बनाया गया। इसी कड़ी में देशभर में व्यापक विरोध प्रदर्शन भी आयोजित किए गए। आखिरकार सरकार ने फिलहाल इसे मंजूरी देने से इंकार कर दिया।

इस संदर्भ में यह जानना जरूरी है कि आखिर यह बीटी बैंगन है किस बला का नाम? दिखने में तो यह साधारण बैंगन जैसा ही होगा। फर्क इसकी बुनियादी बनावट में है। इस बैंगन की, उसके पौधे की, हर कोशिका में एक खास तरह का जहर पैदा करने वाला जीन होगा, जिसे बीटी यानी बेसिलस थिरूंजेनेसिस नामक एक बैक्टेरिया से निकालकर बैंगन की कोशिका में प्रवेश करा दिया गया है। इस जीन को, तत्व को पूरे पौधे में प्रवेश करा देने की सारी प्रक्रिया बहुत ही पेचीदी और बेहद महंगी है। इसी प्रौद्योगिकी को जेनेटिक इंजीनियरिंग का नाम दिया गया है।

हमारे देश में बैंगन का ऐसा क्या अकाल पड़ा है जो इतनी महंगी तकनीकी से बने बीजों के लिए यहां ऐसे विचित्र प्रयोग चलते रहे? पहले इसका इतिहास देख लें। मध्यप्रदेश के जबलपुर कृषि विश्वविद्यालय के खेतों में बीटी बैंगन की प्रयोगात्मक फसलें ली गई थीं। इस बात की जांच की गई कि इसे खाने से कितने कीड़े मरते हैं।

जांच से पता चलता कि बैंगन में प्राय: लग सकने वाले 70 प्रतिशत कीट इस बैंगन में मरते हैं। इसे ही सकारात्मक नतीजा माना गया। अब बस इतना ही पता करना शेष था कि इस बीटी बैंगन को खाने से मनुष्य पर क्या असर पड़ेगा? प्राणियों पर भी इसके प्रभाव का अधकचरा अध्ययन हुआ है। ऐसे तथ्य सामने आए हैं कि बीटी बैंगन खाने वाले चूहों के फेफड़ों में सूजन, अमाशय में रक्तस्राव, संतानों की मृत्युदर में वृद्धि जैसे बुरे प्रभाव देखे गए हैं।

इसलिए यह बात समझ से परे है कि जब चूहों पर भी बीटी बैंगन के प्रभाव का पूरा अध्ययन नहीं हुआ है तो उसे खेत और बाजार में उतारने की स्वीकृति देने की जल्दी क्या थी। वह भी तब जब इस विषय को देख रही समिति के भीतर ही मतभेद थे।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस समिति में रखे गए स्वतंत्र विशेषज्ञ माइक्रोबायोलॉजिस्ट डॉ. पुष्प भार्गव का कहना था कि स्वीकृति से पूर्व आवश्यक माने गए जैव सुरक्षा परीक्षणों में से अधिकांश को तो छोड़ ही दिया गया है। शायद अमेरिका की तरह हमारी सरकार की भी नीति है कि नियमन पर ज्यादा जोर न दिया जाए। वरना विज्ञान और तकनीक का विकास रुक जाएगा।

यह मंत्र बीज कंपनी मोनसेंटो ने दो दशक पूर्व तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश सीनियर को दिया था और उन्होंने उसे मान भी लिया था। तभी से उनकी नियामक संस्था एफडीए अपने भीतर के वैज्ञानिकों की सलाह के विपरीत अमेरिका में इस विवाद भरी तकनीक से बने मक्का, सोया आदि बीजों को स्वीकृति देते जा रही है और इन बीजों को खेत में बोया जा चुका है। अब अमेरिका के लोग इसकी कीमत चुकाने जा रहे हैं।

अमेरिकन एकेडमी ऑफ एनवायर्नमेंट मेडिसिन (एएइएस) का कहना है कि जीएम खाद्य स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर खतरा है। विषाक्तता, एलर्जी और प्रतिरक्षण, प्रजनन, स्वास्थ्य, चय-अपचय, पचाने की क्रियाओं पर तथा शरीर और अनुवांशिक मामलों में इन बीजों से उगी फसलें, उनसे बनी खाने-पीने की चीजें भयानक ही होंगी।

हमारे देश में इस विचित्र तकनीक से बने कपास के बीच बोए जा चुके हैं। ऐसे खेतों में काम करने वालों में एलर्जी होना आम बात है। यदि पशु ऐसे खेत में चरते हैं तो उनके मरने की आशंका बढ़ती है। भैंसे बीटी बिनौले की चरी खाकर बीमार पड़ी हैं। उनकी चमड़ी खराब हो जाती है व दूध कम हो जाता है। भैंस बीटी बिनौले की खली नहीं खाना चाहती। यूरोप और अमेरिका से खबरें हैं कि मुर्गियां, चूहे, सुअर, बकरी, गाय व कई अन्य पशु जीएम मक्का और अन्य जीएम पदार्थ खाना ही नहीं चाहते। पर हम इन्सानों की दुर्गति तो देखिए जरा।

हमें बताया जा रहा है कि यदि विकास चाहिए तो किसान को बीटी बैंगन के बीज खरीदने के लिए तैयार होना होगा और इसी तरह हम ग्राहकों को भी, उपभोक्ताओं को भी बीटी बैंगन खरीदकर पकाने, खाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए! उनका कहना है कि इससे कोई नुकसान होने की, एलर्जी होने की बात अभी सिद्ध नहीं हुई है। होगी तो हम हैं न। नियंत्रण कर लेंगे। अरे भाई, आखिर दवा उद्योग का भी तो विकास होना चाहिए।

इन पौधों से जमीन, खेत, जल जहरीला होता है, तितली, केंचुए कम होते हैं तो उन समस्याओं से निबटने के लिए कृषि विज्ञान का और विकास होगा, बॉयोटेकनोलॉजी में सीधा विदेशी निवेश और बढ़ेगा। हम इसी तरह तो विकसित होते जाएंगे!

बीटी कपास के खेत के नजदीक यदि देशी कपास बोएं तो उसके फल मुरझा जाते हैं। ऐसा ही बैंगन के साथ भी हो सकता है। प्रकृति और किसानों ने हजारों साल में हजारों किस्म के बैंगन विकसित किए हैं, वह सारा खजाना जीएम बैंगन के फैलने से खत्म हो सकता है। साथ ही उनके औषधि गुण खत्म हो सकते हैं। खुद जीएम बैंगन की अगली पीढ़ियों में पता नहीं कौन से प्रोटीन बनेंगे और उनकी विषाक्तता और एलर्जी पैदा करने वाली ताकत, क्रिया क्या होगी? एक चिंता यह है कि अगर बीटी बैंगन बाजार में आया तो हम पहचानेंगे कैसे कि यह जीएम वाला बैंगन क्या है? आज भी किसानों को गलत और मिलावटी बीज बेचे जाते हैं। उन्हें तीन महीने बात ही पता चलता है कि वे ठगे गए हैं।

जीएम बीज तो बोतल का जिन्न है। बाहर निकलेगा तो दुनिया में फैलता ही जाएगा। वैसे जीएम के पर्यावरणीय प्रभाव स्थाई होते हैं। बीटी बैंगन को सन 2004 में ही करीब-करीब स्वीकृति मिल चुकी थी। परंतु फिर तरह-तरह के विरोधों के कारण इसकी समीक्षा करना तय हुआ। 14 अक्टूबर, 2009 को जेनेटिक इंजिनियरिंग अप्रूवल कमेटी (जीईएसी) ने उसे स्वीकृति दे दी।

वन और पर्यावरण मंत्रलय के मंत्री जयराम रमेश इस विषय पर विभिन्न लोगों, विशेषज्ञों, संस्थाओं और सभी राज्य सरकारों की राय मांग रहे हैं। वे खुद भी जून महीने में कह चुके हैं कि मैं जीएम खाद्य के खिलाफ हूं। केरल और उड़ीसा की सरकारें अपने राज्यों को जीएम मुक्त रखना चाहती हैं। इनके अलावा छत्तीसगढ़ सरकार भी बीटी बैंगन का विरोध कर चुकी है। मध्य प्रदेश सरकार ने भी बीटी बैंगन को अपने राज्य के खेतों में बोने की अनुमति देने से इंकार कर दिया है।

इस प्रश्न का उत्तर भी खोजना होगा कि यदि एक प्रांत जीएम फसलें उगाएगा तो दूसरा प्रांत जीएम मुक्त कैसे रह पाएगा। जयराम रमेश ने जीइएसी की स्वीकृति पर अंतिम निर्णय फरवरी 2010 तक लेने की घोषणा की है। यानी इस बारे में चिंता करने वालों के पास थोड़ा वक्त बाकी है, केन्द्र सरकार को अपनी राय से प्रभावित करने के लिए। लेकिन इन जहरीले बीजों को बनाने वाली कंपनियां तो अभी से बीटी बैंगन की खेती शुरू करने की तैयारियां कर रही हैं।

बीटी बैंगन को नकारने का मध्यप्रदेश का फैसला विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीति 2007 के अनुरूप है। इस नीति में कहा गया है, जीनान्तरित पदार्थ को राज्य में प्रवेश की अनुमति तभी दी जाएगी जब उनकी पर्यावरणीय सुरक्षा पक्की हो जाएगी। राज्य इसके लिए समुचित संस्थागत व्यवस्था का प्रबंध करेगा।

इस नीतिपत्र में खाद्यान्न तथा कृषि उत्पादन के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को पूरा करने के लिए जैविक खेती को केन्द्रीय भूमिका में लाने की घोषणा भी की है। लेकिन इसी राज्य के शहर जबलपुर में बीटी बैंगन, और जीएम मक्का पर अनुसंधान भी हो रहा है। इसमें मध्यप्रदेश का क्या हित है और राज्य सरकार की इसमें क्या भूमिका है, यह भी स्पष्ट होना चाहिए। प्रदेश के कृषि मंत्री जब इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि जीएम बीजों से देश की पारंपरिक खेती नष्ट हो जाएगी और किसान गुलाम बन जाएंगे तो इन अनुसंधानों को जारी रखने का क्या औचित्य है? मात्र खरपतवार की समाप्ति के लिए जीएम फसलों की कोई जरूरत नहीं है।

मध्यप्रदेश की नीति है जैव पदार्थो की पूंजी से विशाल पैमाने पर जैविक खेती। इस लक्ष्य की विशालता को देखते हुए बीटी बैंगन को नकारना एक छोटा परंतु अच्छा कदम है। इसके आगे जीएम मुक्त, कीटनाशक मुक्त और रासायनिक खाद से मुक्त कृषि का कठिन सफर अभी तो बाकी है।

पिछले चार साल में दुनिया भर के 400 कृषि वैज्ञानिकों ने मिलकर एक आकलन किया है। इसे विकास के लिए कृषि विज्ञान और तकनीकी का अंतर्राष्ट्रीय आकलन माना गया है। उनका निष्कर्ष है कि समाधान जेनेटिक इंजीनियरिंग या नेनो टेक्नॉलाजी जैसे उच्च प्रौद्योगिकी में नहीं है। समाधान तो मिलेगा छोटे पैमाने पर, पर्यावरण की दृष्टि से ठीक खेती में। इस तरह की खेती का मुख्य आधार होगा- स्थानीय खाद्य व्यवस्था, कृषि व्यापार नियमों में सुधार, सहारा देनेवाली नीतियों का सुंदर सहयोगी माहौल और खेती में स्त्री-पुरुष की समान सम्मानजनक भागीदारी।
अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनी मोन्सेंटो और उसकी भारतीय साझीदार कंपनी महाइको बीटी बैंगन की खेतीबाड़ी व्यावसायिक पैमाने पर करने के लिए भारी दबाव डाल रही हैं क्योंकि इन कंपनियों ने भारतीय कृषि वातावरण के लिए उपयुक्त बीज पहले ही तैयार कर लिया है.

लेकिन किसानों के संगठन और पर्यावरणवादियों के गुट बीटी बैंगन और जैविक रूप से संशोधित अन्य फ़सलों की व्यावसायिक पैदावार का घोर विरोध कर रहे हैं क्योंकि वे भारत में खेतीबाड़ी और पर्यावरण पर लंबी अवधि में इसके प्रभावों को लेकर चिंतित हैं.
ग़ौरतलब है कि यूरोप में जैविक रूप से संशोधित चीज़ों की खेतीबाड़ी को प्रतिबंधित कर दिया है और इसी से प्रेरित होकर भारत में भी किसान और पर्यावरणविद जैविक रूप से संशोधित चीज़ों की पैदावार का विरोध कर रहे हैं.
बहरहाल, नई तकनीक हमारे बैंगन को तो बेगुण बना ही देगी, वह हमारी खेती में न जाने कितने औगुन भी बो बैठेगी।

बैंगन में होनेवाले रोग : लक्षण और निदान


बैंगन भारत की कुछ प्रमुख सब्जियों में से एक है। इसे देश में काफी पसंद भी किया जाता है। इसकी देश में हर जगह उपलब्धता भी है।

बैंगन की प्रजातियां - भारत में बैंगन की तीन प्रकार की प्रजातियां पाई जाती हैं (1) लम्बे फलवाली - पूसा परपल कलस्टर एवं पूसा कांति इत्यादि (2) नाषपाती आकार के फल एवं (3) गोल फल वाली प्रजातियां जैसे- पूसा पर्पिल राउण्ड, टाइप-3, पंजाब बहार, अर्का नवनीत,टाइप एवं पन्त ऋतुराज इत्यादि।


जन्म स्थान -बैंगन का जन्म स्थान भारत एवं चीन के उष्ण कटिबन्धी प्रदेष ही माने जाते हैं। बैंगन की खेती लगभग पूरे वर्ष भर की जाती हैं।

जलवायु तथा भूमि - बैंगन की अच्छी पैदावार हेतु गर्म जलवायु की आवष्यकता होती हैं। तथा जल जल निकास युक्त दौमट मिट्टी इसके उत्पादन हेतु सर्वोत्ताम मानी गयी हैं।

उत्पादन तकनीकि -बैगन की एक हेक्टयर में पौध रोपण हेतु 400-500 ग्राम बीज की आवष्यकता होती हैं। एवं बीजों को बुवाई से पूर्व थाइराम या केप्टान नामक कवकनाषी दवा की 2 ग्राम प्रति किलों बीज की दर से उपचारित कर नर्सरी में बुवाई करनी चाहिए इसके लिए वर्षाकालीन फसल हेतु फरवरी मार्च, शरदकालीन फसल हेतु जून - जुलाई एवं बसंतकालीन फसल हेतु सितम्बर में नर्सरी में पौधे 30-40 दिन बुवाई के बाद 10-15 सें.मी. ऊंचाई के हो जायें तो कतार से कतार की दूरी 60-70 सेन्टीमीटर एवं पौधे से पौधे की दूरी 60 से.मी. ध्यान में रखते हुए रोपाई कर देनी चाहिए। आमतौर पर बैंगन के लिऐ कहा जाता हैं। कि इसमें पोषक तत्वों का अभाव होता हैं, किन्तु यह धारणा निराधार हैं। आयुर्वैदिक चिकित्सा में बैगन का महत्वपूर्ण स्थान हैं। सफेद बैंगन मधुमेह के रोगी के लिये उत्ताम माना गया है।

बैंगन की फसल कई प्रकार के हानिकारक रोगाें द्वारा प्रभावित होती हैं। अगर इसका समय रहते नियंत्रण ना किया गया तो बाजार मूल्य में गिरावट एवं अत्यधिक हानि का सामना करना पड़ सकता हैं। अत: बैगन के प्रमुख रोगो की पहचान कर उनका समय पर उपचार करें।

आर्द गलन (डेम्पिंग ऑफ) :-
यह रोग पीथियम अफेनिडर्मेटम नामक कवकद्वारा उत्पन्न होता है। यह रोग मुख्यत: पौधषाला में उगे पौधों पर लगता हैं। यह पौधों की दो अवस्थाओं में पाया जाता हैं । पहली अवस्था में पौधों के भूमि से निकलने से पूर्व अथवा तुरन्त पश्चात तथा दूसरी अवस्था में पौध बन जाने पर। पहली अवस्था में पौधे छोटी अवस्था में ही मर जाते हैं। दूसरी अवस्था में भूमि के सम्पर्क वाले तने के हिस्से में पीले-हरे रंग के विक्षत बनते हैं। जो तने को प्रभावित कर उत्ताकों को नष्ट कर देते हैं। पौधषाला में पौधों का मुरझान और बाद में सूख जाना रोग का प्रमुख लक्षण हैं।
रोकथाम :- बीज को बुवाई से पूर्व थाइराम या कैप्टान नामक कवकनाषी की 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर बोयें। जहाँ तक हो सके बीजों की बुवाई उचित जल निकास युक्त भूमि से 10-15 से.मी. ऊंचाई पर बुवाई करें। बीजों को बुवाई से पूर्व 50 डिग्री से पूर्व 50 डिग्री सेल्सियस तापमान के गर्म पानी से 30 मिनट तक उपचारित कर बोयें। पौधषाला में रोगग्रस्त पोधों को निकाल कर नष्ट कर देना चाहिए। खड़ी फसल में बोडोमिश्रण 0.8 प्रतिषत घोल का छिड़काव करना चाहिए।

फोमोप्सिस झुलसा रोग :-
यह रोग फोमोप्सिस वेकसेन्स नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता हैं। यह बैंगन का एक भयंकर हानिकारक रोग हैं रोगी पौधों की पत्तियों पर छोटे छोट गोन भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं एवं अनियमित आकार के काले धब्बे पत्तिायों के किनारों पर दिखाई पडते हैं। रोगी पत्तिायां पीली पर पड़कर सूख जाती हैं।रोगी फलों पर धूल के काणों के समान भूरे रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं जो आकार में बढ़कर फलों को सडाकर जमीन पर गिरा देते हैं यह एक मृदाजनित रोग हैं। इसलिए इस रोग का प्रकोप पौधषाला में भी होता हैं। जिसके कारण पौधे झुलस जाते हैं।
रोकथाम :- पौधों को 0.2 प्रतिषत कैप्टान का 7-8 दिन में छिड़काव कर रोग मुक्त करें। रोगग्रस्त पौधों को उखाड़ कर जला देवें। रोगप्रतिरोधी किस्में जैसे 'पूसा भैरव' और 'फ्लोरिडा मार्केट' का चयन करें। रोग का अधिक संक्रमण होने पर 2 ग्राम दवा/लीटर जल में मिलाकर छिड़काव करें।

पत्ती धब्बा रोग (लीफ स्पोट्स) :-
बैंगन में इस रोग का प्रकार चार प्रकार की कवक प्रतातियों द्वारा उत्पन्न होता हैं। (1) अलटरनेरिया मेलांतनि (2) अल्टरनेरिया सोलेनाई (3) सरर्कोस्पोरा सोलेनाई मेंलाजनि एवं (4) सर्कोस्पोरा सोलेनाई। अल्टरनेरिया की उपयुक्त दोनों प्रजातियों के कारण पत्तीयों पर अनियमित आकार के भूरे धब्बे बन जाते हैं। ये धब्बें आपस में मिलकर विक्षत का रूप धारण कर देते हैं। जिससे पत्तियां सूख कर गिर जाती हैं। अल्टरनेरिया पेलांजनि के कारण फल भी प्रभावित होते हैं। रोगी फल पीले पड़ जाते है तथा पकने से पूर्व ही गिर जाते हैं। एवं सर्कोस्पोस प्रजातियों के कारण पत्तिायों में कोणीय से अनियमित आकार के धब्बे बन जाते हैं। जो बाद में मटमेले भूरे रंग के हो जाते हैं। यह रोग जनक कवक फलो में सड़न भी उत्पन्न कर देता हैं। तथा फलों का आकार छोटा रह जाता है। जिससे उपज की भारी हानि होती हैं।
रोकथाम :- खरपतवारों की रोक थाम नियमित रूप से करते रहना चाहिए। रोगी पत्तिायों को तोड़ कर यथा स्थान जला देना चाहिए । डाइथेन जॅड - 78, फाइटोलोन या ष्लाइटोक्स आदी के 0.2 प्रतिषत घोल का 7-8 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए । श्रोग प्रतिरोधी किस्मों जैसे - पूसा पर्पिल कलस्टर, एच-4 मंजरी ब्लेक राउण्ड, गोटा, जूनागढ़, चयन-11 (लम्बा),की पी-8 इत्यादि को बुवाई हेतु उपयोग करना चाहिए।

स्कलेरोटीनिया अगंमारी रोग :-
यह रोग स्कलेरोटीनिया नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता हैं इस रोग के लक्षणों में संक्रमण स्थान पर शुष्क विवर्ण्ाित धब्बा बनता हैं। जो धीरे - धीरे तने या शाखा को घेर लेता हैं। तथा ऊपर नीचे फैल कर संक्रमित भाग को सम्पूर्ण नष्ट कर देता हैं। तने के आधार पर संक्रमण होने पर आंषिक मुरझान दिखाई देती हैं। तने के पिथ में भूरे रंग से काले रंग के स्केलोरोष्यिा (काष्टकवक) बन जाते है। संक्रमित फल में भी मांसल उत्ताक विगलित हो जाता हैं।
रोकथाम :- रोग की रोगथाम हेतु फसल अवषेष, खरपतवार संक्रमित फल इत्यादि को एकत्रित कर के जला देना चाहिए। खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई कर देने चाहिए। प्याज, मक्का, पालक इत्यादि के साथ फसल चक्र अपनाना चाहिए । ट्राइकोड्रामा हारजीऐनम तथा ट्राइकोड्रामा वीरिडी से बीज उपचारित कर बोना चाहिए।

उक्टा या म्लानी रोग :-
यह रोग वर्टिसीलियम डहेली नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता हैं। इस रोग का संक्रमण मुख्यत: जड़ों एवं तनाें पर होता है। इससे संक्रमित पौधा बोना रह जाता हैं। और सामान्यत: फलोत्पादन नहीं करता, पुष्प तथा फल विकृत होकर गिर जाते हैं। तने की अनुपस्त तथा लम्बत: काट में सवहंनी उत्ताक घुसर काले रंग का दिखाई देता हैं। प्रभावित पत्तिायां पीली पड़ कर गिर जाती हैं।
रोकथाम :- यह एक मृदोड़ रोग हैं इसलिए मृदा उपचार टाइकोड्रमा तथा स्यूडोमोनास फ्लरोसेंस द्वारा किया जाता हैं। रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करना चाहिए ं रोग के लक्षण दिखने पर बेनटेल (0.1प्रतिषत) का छिकाव करना चाहिए।

छोटी पत्ताीरोग :-
यह बैंगन का एक माइकोप्लाजमा, जनित विनाषकारी रोग है जिसे 'लीफ होपर' नामक कीट से हिलता हैं। इसमें रोगी पौधा बोना रह जाता हैं। तथा पत्तिायां आकार में छोटी रह जाती हैं। प्राय: रोगी पौधों पर फूल नहीं बनते हैं। और पौधा झाड़ीनुमा हो जाता हैं। यदि इन पौधों पर फल भी लग जाते हैं तो वे अत्यंत कठोर होते हैं। रोगी पौधों को उखाड कर जला देना चाहिए।
रोकथाम :- लीफहोपर से फसल को बचाने के लिए 0.1 प्रतिषत एकाटोक्स या फोलीडोल का फल निर्माण तक छिड़काव करना चाहिए। पौधों को रोपाई से पूर्व टेट्रासाइक्लिन के 100 पी.पी.एम. घोल में डुबोकर रोपाई करनी चाहिए। रोग रोधी किस्में जैसे - पूसा पर्पिल क्लस्टर और कटराइन सैल 212 - 1, सैल 252-1-1 और सैल 252-2-1 उगाये। पेड़ी फसल ना लेवे।

सूत्रकृमि :-
यह रोग सूत्रकृमि पेलाडोगाइन की अनेक प्रजातियों द्वारा उत्पन्न होता हैं जिससे रोगी पौधों की जड़ो में गाठें बन जाती हैं, रोगी पौधा बौना रह जाता हैं। पत्तिायां हरी पीली होकर लटक जाती हैं। इस रोग के कारण पौधा नष्ट तो नहीं होता किन्तु गांठो के सडने पर सूख जाता हैं। इसके द्वारा 45-55 प्रतिषत तक हानि होती हैं।
रोकथाम :- खेत मे नमी होन पर नीम की खली एवं लकड़ी का बुरादा 25 क्विंटल प्रति हेक्टयर की दर से भूमि में मिला देना चाहिए। रोगी पौधों को उखाड़ कर जला देना चाहिए। नेभागान 12 लीटर प्रति हैक्टयर की दर से भूमि का फसल बोने या रोपने से 3 सप्ताह पूर्व शोधन करना चाहिए।

हाईब्रिड बैंगन की खेती

बैंगन एक पौष्टिक सब्जी है। इसमें विटामिन ए एवं बी के अलावा कैल्शियम, फ़ॉस्फ़रस तथा लोहे जैसे खनीज भी होते है। यदि इसकी उपयुक्त उत्तम क़िस्में तथा संकर किंस्में बोई जाए और उन्नत वैज्ञानिक सस्य क्रियाएं अपनाई जाएं तो इसकी फ़सल से काफ़ी अधिक उपज मिल सकती है।



बैंगन की क़िस्में

पूसा हाईब्रिड -5

पौधे की अच्छी बढ़वार तथा शाखाएँ ऊपर को उठी हुई होती है, फल मध्यम लम्बाई के, चमकदार तथा गहरे बैंगनी रंग के होते है। बुआई से पहली तुड़ाई में 85- 90 दिन लगते है। उत्तरी तथा मध्य भारत के मैदानी क्षेत्रों तथा समुद्र तट को छोड़ कर कर्नाटक, केरल, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु क्षेत्र के लिये उपयुक्त है। उपज 450 से 650 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है।

पूसा हाईब्रिड-6

पौधे मध्यम सीधे खडे रहने वाले होते हैं। फल गोल, चमकदार, आकर्षक बैंगनी रंग के होते है, प्रत्येक फल का वजन लगभग 200 ग्राम होता है। बुआई से पहली गुड़ाई में 85-90 दिन लगते है। उपज 400-600 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है।

पूसा हाईब्रिड 9

पौधे सीधे खडे रहने वाले होते हैं। फल अण्डाकार गोल, चमकदार बैंगनी रंग के होते हैं। प्रत्येक फल का वजन लगभग 300 ग्राम होता है । बुआई के पहली तुडाई में 85-90 दिन लगते है । गुजरात तथा महाराष्ट्र क्षेत्र के लिए उपयुक्त है । इसकी औसत उपज 500 क्विंटल प्रति हेक्टेअर है।

पूसा क्रान्ति

इस क़िस्म के फल गहरे बैंगनी रंग के मध्यम लम्बाई के होते है । यह क़िस्म बसन्त तथा सर्दी दोनों मौसमों के लिये उपयुक्त पाई गई है । इसकी औसत उपज 300 किंवटल प्रति हेक्टेअर है।

पूसा भैरव

इसके फल गहरे बैंगनी रंग के थोड़े मोटे व कुछ लम्बे होते है । यह क़िस्म फल-गलन रोग प्रतिरोधी है।

पूसा पर्पल कलस्टर

पौधें सीधे खडे रहने वाले होते है। पत्तियाँ रगंदार होती है। फल 9 से 12 सें०मी० लम्बे तथा गुच्छे में लगते है। यह क़िस्म पहाडी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह क़िस्म फल तथा तना छेदक, जीवाणु तथा उकटा रोग के लिए कुछ रोधक है।
पूसा अनुपम पौधे मध्यम तथा सीधे होते हैं। फल पतले, बैगनी रंग के होते हैं। फल गुच्छे में लगते है। यह क़िस्म उकठा रोग प्रतिरोधी है।

पूसा बिन्दु

इस क़िस्म के बैंगन छोटे,गोल और चमकदार होते हैं । जिनका रंग गहरा बैंगनी डंठल चित्तीदार होता है । यह क़िस्म 90 दिन में तैयार हो जाती है । औसत उपज 300 क्विंटल प्रति हेक्टेअर है । यह क़िस्म उत्तरी मैदानी क्षेत्रों के लिये उपयुक्त है।

पूसा उत्तम 31

इसके फल अण्डाकार गोल चमकदार, गहरे बैंगनी रंग और मझौले आकार के होते हैं । बुआई से पहली तुड़ाई में 85-90 दिन लगते हैं। औसत उपज 425 क्विंटल प्रति हेक्टेअर है । यह क़िस्म उत्तरी मैदानी तथा पश्चिमी क्षेत्रों के लिये उपयुक्त है ।

पूसा उपकार

इसके फल गोल चमकदार, गहरे बैंगनी रंग और मझौले आकार के होते हैं। फल का औसत वजन 200 ग्राम होता है । पहली तुडाई फसल बोने के 85 दिन बाद की जा सकती है । यह क़िस्म उत्तरी मैदानी क्षेत्र के लिए उपयुक्त है । इसकी औसत उपज 400 क्विंटल प्रति हेक्टेअर है ।

पूसा अंकुर

यह एक अगेती क़िस्म है जो बुआई की तारीख से 75 दिनों में फल तोडने के लायक हो जाते हैं । फल छोटे, गहरे बैंगनी , अण्डाकार गोल चमकीले होते हैं । इसकी औसत उपज 350 क्विंटल प्रति हेक्टेअर है ।

नर्सरी

इसके बीज उठी हुई क्यारियों में लगभग 1 सें०मी० की गहराई पर 5 से 7 सें०मी० के फासलों पर बनी कतारों में बोने चाहिएँ। एक हेक्टेअर क्षेत्र में रोपाई के लिये लगभग 400 ग्राम बीज पर्याप्त है। संकर क़िस्मों के बीज की मात्रा 250 ग्राम पर्याप्त रहती है। भारी आकार वाली क़िस्मों के लिये पंक्ति से पंक्ति की दूरी 70 सें०मी० तथा पौधों से पौधों की दूरी 60 सें०मी० रखी जाती है। छोटे आकार वाली क़िस्मों के लिये पंक्ति से पंक्ति तथा पौधे से पौधे की दूरी का फासला 60 x 60 या 60x 45 सें०मी० रखा जा सकता है।


बुआई

शरद फसल

इस फसल के बीज मई-जून में बोए जाते हैं और पौध रोपाई जून के अन्त से जुलाई के मध्य तक की जा सकती है।

बसंत-ग्रीष्म

इस फसल के बीज नवम्बर के मध्य में बोये जाते हैं और पौध जनवरी के अन्त में तब रोपी जाती है, जब पाले का भय समाप्त हो जाता है।

वषा ऋतु

इस फसल के बीज फरवरी- मार्च के महीनों में बोए जाते हैं और पौध की रोपाई मार्च-अप्रैल के महीनों में की जाती है।

खाद और उर्वरक

खाद व उर्वरक की मात्रा मिट्टी की जांच के आधार पर की गई सिफारिश के अनुसार रखनी चाहिए। जहां मिट्टी की जांच न की हो खेत तैयार करते समय 25-30 टन गोबर की सड़ी खाद मिट्टी में अच्छी तरह मिला देनी चाहिए। इसके साथ-साथ 200 किलो ग्राम यूरिया, 370 किलो ग्राम सुपर फ़ॉस्फ़ेट और 100 किलो ग्राम पोटेशियम सल्फ़ेट का इस्तेमाल करना चाहिए। यूरिया की एक तिहाई मात्रा और सुपरफ़ॉस्फ़ेट तथा पौटेशियम सल्फ़ेट की पूरी मात्रा खेत में आखिरी बार तैयारी करते समय इस्तेमाल की जानी चाहिए। बची यूरिया की मात्रा को दो बराबर खुराकों में देना चाहिए। पहली खुराक पौधे की रोपाई के 3 सप्ताह बाद दी जाती है जबकि दूसरी मात्रा पहली मात्रा देने के चार सप्ताह बाद दी जानी चाहिए।

पौध संरक्षण

रोपाई के 2 सप्ताह बाद मोनोक्रोटोफास 0.04 % घोल, 15 मि०ली० प्रति लीटर पानी का छिड़काव करें।

प्ररोह बेधक से प्रभावित फलों और प्ररोहों को जहां से तना मुरझाया हो उसके आधे इंच नीचे से काट दें और उन्हें ज़मीन में गाढ दें। खेतों को बेधकों से मुक्त रखने के लिए यह काम प्रति दिन करते रहे।

मोनोक्रोटोफोस के छिड़काव के 3 सप्ताह बाद डेसिस 0.005 प्रतिशत घोल या 1 मि०ली० प्रति लीटर पानी का छिड़काव करें। डेसिस के छिड़काव के 3 सप्ताह बाद ब्लिटाकस प्रति कैप्टान-2 ग्राम प्रति लीटर पानी और मिथाइल पेराथियोन -2 मि०ली० प्रति लीटर पानी का छिड़काव करे। अगर जैसिड की समस्या हो तो मिथाइल पेराथियोन का छिड़काव फिर से करें लेकिन मिथाइल पेराथियोन छिड़कने से पहले फलों को तोड़ लें।

प्ररोह बेधक से प्रभावित फलों और प्ररोहों को जहां से तना मुरझाया हो उसके आधे इंच नीचे से काट दें और उन्हें जमीन में गाड़ दें। खेतों को बेधकों से मुक्त रखने के लिए यह काम प्रतिदिन करते रहें।

मोनोक्रोटोफोस के छिड काव के 3 सप्ताह बाद डेसिस 0.005 प्रतिशत घोल या 1 मि. ली. प्रति लीटर पानी का छिडकाव करें। डेसिस के छिडकाव के 3 सप्ताह बाद ब्लिटाकस प्रति कैप्टान - 2 ग्राम प्रति लीटर पानी और मिथाइल परथिओन-2 मि. ली. प्रति लीटर पानी का छिड़काव करे। यदि जैसिड की समस्या हो तो मिथाइल पेराथियोन का छिडकाव फिर से करें लेकिन मिथाइल पेराथियोन छिडकने से पहले फलों को तोड लें।

कटाई

बैंगन के फल जब मुलायम हों और उनमें ज्यादा बीज न बनें हों तभी उन्हें तोड़ लेने चाहिए। ज्यादा बड़े होने पर इनमें बीज पड़ जाते हैं और तब ये उतने स्वादिष्ट नहीं रह जाते।

रविवार, 28 अगस्त 2011

अंगूर की आधुनिक खेती


अंगूर संसार के उपोष्ण कटिबंध के फलों में विशेष महत्व रखता है। हमारे देश में लगभग 620 ई.पूर्व ही उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में अंगूर की व्यवसायिक खेती एक लाभकारी उद्यम के रूप में विकसित हो गई थी लेकिन उत्तरी भारत में व्यवसायिक उत्पादन धीरे - धीरे बहुत देर से शुरू हुआ। आज अंगूर ने उत्तर भारत में भी एक महत्वपूर्ण फल के रूप में अपना स्थान बना लिया है और इन क्षेत्रों में इसका क्षेत्रफल काफी तेजी से बढ़ता जा रहा है। पिछले तीन दशकों में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अंगूर कि खेती ने प्रगति की है जिसके फलस्वरूप भारत में अंगूर के उत्पादन, उत्पादकता एवं क्षेत्रफल में अपेक्षा से अधिक वृद्धि होती जा रही है।


उपयोग
अंगूर एक स्वादिष्ट फल है। भारत में अंगूर अधिकतर ताजा ही खाया जाता है वैसे अंगूर के कई उपयोग हैं। इससे किशमिश, रस एवं मदिरा भी बनाई जाती है।

मिट्टी एवं जलवायु
अंगूर की जड़ की संरचना काफी मजबूत होती है। अतः यह कंकरीली,रेतीली से चिकनी तथा उथली से लेकर गहरी मिट्टियों में सफलतापूर्वक पनपता है लेकिन रेतीली, दोमट मिट्टी, जिसमें जल निकास अच्छा हो अंगूर की खेती के लिए उचित पाई गयी है। अधिक चिकनी मिट्टी में इसकी खेती न करे तो बेहतर है। अंगूर लवणता के प्रति कुछ हद तक सहिष्णु है। जलवायु का फल के विकास तथा पके हुए अंगूर की बनावट और गुणों पर काफी असर पड़ता है। इसकी खेती के लिए गर्म, शुष्क, तथा दीर्घ ग्रीष्म ऋतू अनुकूल रहती है। अंगूर के पकते समय वर्षा या बादल का होना बहुत ही हानिकारक है। इससे दाने फट जाते हैं और फलों की गुणवत्ता पर बहुत बुरा असर पड़ता है। अतः उत्तर भारत में शीघ्र पकने वाली किस्मों की सिफारिश की जाती है।

किस्में
उत्तर भारत में लगाई जाने वाली कुछ किस्मों की विशेषताएं नीचे दी जा रही हैं।

परलेट
यह उत्तर भारत में शीघ्र पकने वाली किस्मों में से एक है। इसकी बेल अधिक फलदायी तथा ओजस्वी होती है। गुच्छे माध्यम, बड़े तथा गठीले होते हैं एवं फल सफेदी लिए हरे तथा गोलाकार होते हैं। फलों में 18 - 19 तक घुलनशील ठोस पदार्थ होते हैं। गुच्छों में छोटे - छोटे अविकसित फलों का होना इस किस्म की मुख्य समस्या है।

ब्यूटी सीडलेस
यह वर्षा के आगमन से पूर्व मई के अंत तक पकने वाली किस्म है गुच्छे मध्यम से बड़े लम्बे तथा गठीले होते हैं। फल मध्यम आकर के गोलाकार बीज रहित एवं काले होते हैं। जिनमे लगभग 17 - 18 घुलनशील ठोस तत्त्व पाए जाते हैं।

पूसा सीडलेस
इस किस्म के कई गुण 'थाम्पसन सीडलेस' किस्म से मेल खाते हैं। यह जून के तीसरे सप्ताह तक पकना शुरू होती है। गुच्छे मध्यम, लम्बे, बेलनाकार सुगन्धयुक्त एवं गठे हुए होते हैं। फल छोटे एवं अंडाकार होते हैं। पकने पर हरे पीले सुनहरे हो जाते हैं। फल खाने के अतिरिक्त अच्छी किशमिश बनाने के लिए उपयुक्त है।

पूसा नवरंग
यह संकर किस्म भी हाल ही में भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा विकसित की गयी है। यह शीघ्र पकने वाली काफी उपज देने वाली किस्म है। गुच्छे मध्यम आकर के होते हैं। फल बीजरहित, गोलाकार एवं काले रंग के होते हैं। इस किस्म में गुच्छा भी लाल रंग का होता है। यह किस्म रस एवं मदिरा बनाने के लिए उपयुक्त है।

प्रवर्धन
अंगूर का प्रवर्धन मुख्यतः कटिंग कलम द्वारा होता है। जनवरी माह में काट छाँट से निकली टहनियों से कलमे ली जाती हैं। कलमे सदैव स्वस्थ एवं परिपक्व टहनियों से लिए जाने चाहिए। सामान्यतः 4 - 6 गांठों वाली 23 - 45 से.मी. लम्बी कलमें ली जाती हैं।कलम बनाते समय यह ध्यान रखें कि कलम का निचे का कट गांठ के ठीक नीचे होना चाहिए एवं ऊपर का कट तिरछा होना चाहिए। इन कलमों को अच्छी प्रकार से तैयार की गयी तथा सतह से ऊँची क्यारियों में लगा देते हैं। एक वर्ष पुरानी जड़युक्त कलमों को जनवरी माह में नर्सरी से निकल कर खेत में रोपित कर देते हैं।


बेलों की रोपाई
रोपाई से पूर्व मिट्टी की जाँच अवश्य करवा लें। खेत को भलीभांति तैयार कर लें। बेल की बीच की दुरी किस्म विशेष एवं साधने की पद्धति पर निर्भर करती है। इन सभी चीजों को ध्यान में रख कर 90 x 90 से.मी. आकर के गड्ढे खोदने के बाद उन्हें 1/2 भाग मिट्टी, 1/2 भाग गोबर की सड़ी हुई खाद एवं 30 ग्राम क्लोरिपाईरीफास, 1 कि.ग्रा. सुपर फास्फेट व 500 ग्राम पोटेशीयम सल्फेट आदि को अच्छी तरह मिलाकर भर दें। जनवरी माह में इन गड्ढों में 1 साल पुरानी जड़वाली कलमों को लगा दें। बेल लगाने के तुंरत बाद पानी आवश्यक है।

बेलों की सधाई एवं छंटाई
बेलों से लगातार अच्छी फसल लेने के लिए एवं उचित आकर देने के लिए साधना एवं काट - छाँट की सिफारिश की जाती है। बेल को उचित आकर देने के लिए इसके अनचाहे भाग के काटने को साधना कहते हैं, एवं बेल में फल लगने वाली शाखाओं को सामान्य रूप से वितरण हेतु किसी भी हिस्से की छंटनी को छंटाई कहतें हैं।
अंगूर की बेल साधने हेतु पण्डाल, बाबर, टेलीफोन, निफिन एवं हैड आदि पद्धतियाँ प्रचलित हैं। लेकिन व्यवसायिक इतर पर पण्डाल पद्धति ही अधिक उपयोगी सिद्ध हुयी है। पण्डाल पद्धति द्वारा बेलों को साधने हेतु 2.1 - 2.5 मीटर ऊँचाई पर कंक्रीट के खंभों के सहारे लगी तारों के जाल पर बेलों को फैलाया जाता है। जाल तक पहुँचने के लिए केवल एक ही ताना बना दिया जाता है। तारों के जाल पर पहुँचने पर ताने को काट दिया जाता है ताकि पार्श्व शाखाएँ उग आयें।उगी हुई प्राथमिक शाखाओं पर सभी दिशाओं में 60 सेमी दूसरी पार्श्व शाखाओं के रूप में विकसित किया जाता है। इस तरह द्वितीयक शाखाओं से 8 - 10 तृतीयक शाखाएँ विकसित होंगी इन्ही शाखाओं पर फल लगते हैं।

छंटाई
बेलों से लगातार एवं अच्छी फसल लेने के लिए उनकी उचित समय पर काट - छाँट अति आवश्यक है। छंटाई कब करें : जब बेल सुसुप्त अवस्था में हो तो छंटाई की जा सकती है, परन्तु कोंपले फूटने से पहले प्रक्रिया पूरी हो जानी चाहिए। सामान्यतः काट - छांट जनवरी माह में की जाती है।

कितनी छंटाई करें
छंटाई की प्रक्रिया में बेल के जिस भाग में फल लगें हों, उसके बढे हुए भाग को कुछ हद तक काट देते हैं। यह किस्म विशेष पर निर्भर करता है। किस्म के अनुसार कुछ स्पर को केवल एक अथवा दो आँख छोड़कर शेष को काट देना चाहिए। इन्हें 'रिनिवल स्पर' कहते हैं। आमतौर पर जिन शाखाओं पर फल लग चुके हों उन्हें ही रिनिवल स्पर के रूप में रखते हैं।
छंटाई करते समय रोगयुक्त एवं मुरझाई हुई शाखाओं को हटा दें एवं बेलों पर ब्लाईटोक्स 0.2 % का छिडकाव अवश्य करें।
किस्म कितनी आँखें छोडें
1 ब्यूटी सीडलेस 3 - 3
2 परलेट 3-4
3 पूसा उर्वसी 3-5
4 पूसा नवरंग 3-5
5 पूसा सीडलेस 8-10

सिंचाई
नवम्बर से दिसम्बर माह तक सिंचाई की खास आवश्यकता नहीं होती क्योंकि बेल सुसुप्ता अवस्था में होती है लेकिन छंटाई के बाद सिंचाई आवश्यक होती है। फूल आने तथा पूरा फल बनने (मार्च से मई ) तक पानी की आवश्यकता होती है। क्योंकि इस दौरान पानी की कमी से उत्पादन एवं हुन्वात्ता दोनों पर बुरा असर पड़ता है। इस दौरान तापमान तथा पर्यावरण स्थितियों को ध्यान में रखते हुए 7 - 10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए। फल पकने की प्रक्रिया शुरू होते ही पानी बंद कर देना चाहिए नहीं तो फल फट एवं सड़ सकते हैं। फलों की तुडाई के बाद भी एक सिंचाई अवश्य कर देनी चाहिए।

खाद एवं उर्वरक
अंगूर की बेल भूमि से काफी मात्र में पोषक तत्वों को ग्रहण करती है। अतः मिट्टी कि उर्वरता बनाये रखने के लिए एवं लगातार अच्छी गुणवत्ता वाली फसल लेने के लिए यह आवश्यक है की खाद और उर्वरकों द्वारा पोषक तत्वों की पूर्ति की जाये। पण्डाल पद्धति से साधी गई एवं 3 x 3 मी. की दुरी पर लगाई गयी अंगूर की 5 वर्ष की बेल में लगभग 500 ग्राम नाइट्रोजन, 700 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश, 700 ग्राम पोटेशियम सल्फेट एवं 50 - 60 कि.ग्रा. गोबर की खाद की आवश्यकता होती है।

खाद कब दें
छंटाई के तुंरत बाद जनवरी के अंतिम सप्ताह में नाइट्रोजन एवं पोटाश की आधी मात्र एवं फास्फोरस की सारी मात्र दाल देनी चाहिए। शेष मात्र फल लगने के बाद दें। खाद एवं उर्वरकों को अच्छी तरह मिट्टी में मिलाने के बाद तुंरत सिंचाई करें। खाद को मुख्य तने से दूर १५-२० सेमी गहराई पर डालें।

कैसे करें फल गुणवत्ता में सुधार
अच्छी किस्म के खाने वाले अंगूर के गुच्छे मध्यम आकर, मध्यम से बड़े आकर के बीजरहित दाने, विशिष्ट रंग, खुशबू, स्वाद व बनावट वाले होने चाहिए। ये विशेषताएं सामान्यतः किस्म विशेष पर निर्भर करती हैं। परन्तु निम्नलिखित विधियों द्वारा भी अंगूर की गुणवत्ता में अपेक्षा से अधिक सुधार किया जा सकता है।

फसल निर्धारण
फसल निर्धारण के छंटाई सर्वाधिक सस्ता एवं सरल साधन है। अधिक फल, गुणवत्ता एवं पकने की प्रक्रिया पर बुरा प्रभाव छोड़ते हैं। अतः बेहतर हो यदि बाबर पद्धति साधित बेलों पर 60 - 70 एवं हैड पद्धति पर साधित बेलों पर 12 - 15 गुच्छे छोड़े जाएं। अतः फल लगने के तुंरत बाद संख्या से अधिक गुच्छों को निकाल दें।

छल्ला विधि
इस तकनीक में बेल के किसी भाग, शाखा, लता, उपशाखा या तना से 0.5 से.मी. चौडाई की छाल छल्ले के रूप में उतार ली जाती है। छाल कब उतारी जाये यह उद्देश्य पर निर्भर करता है। अधिक फल लेने के लिए फूल खिलने के एक सप्ताह पूर्व, फल के आकर में सुधार लाने के लिए फल लगने के तुंरत बाद और बेहतर आकर्षक रंग के लिए फल पकना शुरू होने के समय छाल उतारनी चाहिए। आमतौर पर छाल मुख्य तने पर 0.5 से.मी चौडी फल लगते ही तुंरत उतारनी चाहिए।

वृद्धि नियंत्रकों का उपयोग
बीज रहित किस्मों में जिब्बरेलिक एसिड का प्रयोग करने से दानो का आकर दो गुना होता है। पूसा सीडलेस किस्म में पुरे फूल आने पर 45 पी.पी.एम. 450 मि.ग्रा. प्रति 10 ली. पानी में, ब्यूटी सीडलेस मने आधा फूल खिलने पर 45 पी.पी.एम. एवं परलेट किस्म में भी आधे फूल खिलने पर 30 पी.पी.एम का प्रयोग करना चाहिए। जिब्बरेलिक एसिड के घोल का या तो छिडकाव किया जाता है या फिर गुच्छों को आधे मिनट तक इस घोल में डुबाया जाता है। यदि गुच्छों को 500 पी.पी.एम 5 मिली. प्रति 10 लीटर पानी में इथेफ़ोन में डुबाया जाये तो फलों में अम्लता की कमी आती है। फल जल्दी पकते हैं एवं रंगीन किस्मों में दानों पर रंग में सुधार आता है। यदि जनवरी के प्रारंभ में डोरमैक्स 3 का छिडकाव कर दिया जाये तो अंगूर 1 - 2 सप्ताह जल्दी पक सकते हैं।

फल तुड़ाई एवं उत्पादन
अंगूर तोड़ने के पश्चात् पकते नहीं हैं, अतः जब खाने योग्य हो जाये अथवा बाजार में बेचना हो तो उसी समय तोड़ना चाहिए। शर्करा में वृद्धि एवं तथा अम्लता में कमी होना फल पकने के लक्षण हैं। फलों की तुडाई प्रातः काल या सायंकाल में करनी चाहिए। उचित कीमत लेने के लिए गुच्छों का वर्गीकरण करें। पैकिंग के पूर्व गुच्छों से टूटे एवं गले सड़े दानों को निकाल दें। अंगूर के अच्छे रख - रखाव वाले बाग़ से तीन वर्ष पश्चात् फल मिलना शुरू हो जाते हैं और 2 - 3 दशक तक फल प्राप्त किये जा सकते हैं। परलेट किस्म के 14 - 15 साल के बगीचे से 30 - 35 टन एवं पूसा सीडलेस से 15 - 20 टन प्रति हैक्टेयर फल लिया जा सकता है।

बीमारियाँ एवं कीट
बीमारियाँ
उत्तरी भारत में अंगूर को मुख्यतः एन्थ्रक्नोज एवं सफ़ेद चुरनी रोग ही मुख्य बीमारियाँ हैं। एन्थ्रक्नोज बहुत ही विनाशकारी रोग है। इसका प्रभाव फल एवं पत्ती दोनों पर होता है। पत्तों की शिराओं के बीच जगह - जगह टेढ़े-मेढ़े गहरे भूरे दाग पद जाते हैं। इनके किनारे गहरे भूरे या लाल रंग के होते हैं। परन्तु मध्य भाग धंसा हुआ हलके रंग का होता है और बाद में पत्ता गिर जाता है। आरम्भ में फलों पर धब्बे हल्के रंग के होते हैं परन्तु बाद में बड़ा आकर लेकर बीच में गहरे हो जाते हैं तथा चारों ओर से लालिमा से घिर जाते हैं। इस बीमारी के नियंत्रण हेतु छंटाई के बाद प्रभावित भागों को नष्ट कर दे। कॉपर आक्सीक्लोराइड 0.2 % के घोल का छिड़काव करें एवम पत्ते निकलने पर 0.2 % बाविस्टिन का छिड़काव करें। वर्षा ऋतु में कार्बेन्डाजिम 0.2% का छिडकाव 15 दिन के अंतराल पर आवश्यक है।

सफ़ेद चूर्णी रोग
अन्य फफूंद बीमारियों की अपेक्षा यह शुष्क जलवायु में अधिक फैलाती है। प्रायः पत्तों, शाखाओं, एवं फलों पर सफ़ेद चूर्णी दाग देखे जा सकते हैं। ये दाग धीरे - धीरे पुरे पत्तों एवं फलों पर फ़ैल जाते हैं। जिसके कारण फल गिर सकते हैं या देर से पकते हैं। इसके नियंत्रण के लिए 0.2% घुलनशील गंधक, या 0.1% कैरोथेन के दो छिडकाव 10 - 15 दिन के अंतराल पर करें।

कीट
थ्रिप्स, चैफर, बीटल एवं चिडिया, पक्षी अंगूर को हानि पहुंचाते हैं। थ्रिप्स का प्रकोप मार्च से अक्तूबर तक रहता है। ये पत्तियों, शाखाओं, एवं फलों का रस चूसकर हानि पहुंचाते हैं। इनकी रोकथाम के लिए 500 मिली. मेलाथियान का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव करें।
चैफर बीटल कीट रात में पत्तों को बुरी तरह से क्षतिग्रस्त करता है, वर्षाकाल में 10 दिन के अंतराल पर 10 % बी.एच.सी. पावडर बुरक देना इस कीट के नियंत्रण हेतु लाभदायक पाया गया है।
चिडिया अंगूर को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाती है। फल पकने के समय चिडिया गुच्छे खा जाती है। अतः घर से आंगन में लगी बेल के गुच्छों को हरे रंग की मलमल की थैलियों से ढक देना चाहिए। बड़े - बड़े बगीचों में नाइलोन के जाल से ढक दें , ढोल बजाकर चिडियों से छुटकारा पाया जा सकता है।

श्री विधि से खेती में बढ़ती है धान की पैदावार


आधुनिक और उन्नत तरीके से श्री विधि द्वारा धान की खेती, के अंतर्गत बिचड़ा खेत की सूखे में 2 या 3 बार जुताई की जाती है जिससे मिटटी नम हो जाती है और घास तथा कीड़े खत्म हो जाते हैं. इस मिटटी में करीब 50 किलो सड़ा हुआ गोबर या भरमी कम्पोस्ट मिला दिया जाता है. वर्षा होने पर खेत को 2 या 3 बार जोत दिया जाता है और अंतिम जोताई में 2 किलो यूरिया, 4 किलो डी.ए.पी. एवं 1 किलो पोटाश मिलाकर छिट दिया जाता है और पौकी चलाकर समतल बना दिया जाता है.बीज का उपचार करने के लिए एक बाल्टी में दो मग पानी लेके अंडा या आलू डालकर देखेंगे की वो डूब जाता है फिर उसमे नमक डालकर घोल बनाते हैं और देखते हैं कि अंडा या आलू उसमे तैरने लगता है. अब इसमें धान को डाल दें और हाथ से मिला दें, जो धान ऊपर आ जाये उसको निकालकर बहार फेंक देते हैं. अब नमक घोल से धान को निकलकर बांस कि टोकरी पर फैला देते हैं जिससे धान से पानी निकल जाता है और सिर्फ नमी रह जाने पर प्रति किलो बीज में 2 ग्राम वेवसटीनिया विटवेक्स मिला कर जुट के बोरे में बांध कर ठंडी जगह में रख दिया जाता है. 24 घंटे के अंदर अंकुरण आना शुरू हो जाता है अब इस अंकुरित बीज को प्रत्येक बेड में आधा किलो के हिसाब से फैला दिया जाता है और इसके ऊपर सुखा गोबर या राख या वर्मी कम्पोस्ट छिड़क दिया जाता है ताकि इस पर चिड़िया कि नज़र न पड़े और बीज तथा खेत सुरक्षित रहे. यह पौधा 8 से 15 दिनों में रोपने लायक हो जाता है.
नर्सरी की 2 या 3 बार सूखी जोताई की जाती है जिससे यह हलकी और भुरभुरी हो जाती है. यह ध्यान अवश्य रखा जाता है की इसकी ऊँचाई ज़मीन से 3 से 4 इंच तक रहे. इसके चारों ओर 9 इंच की लकड़ी की पट्टी लगायी जाती है ताकि नर्सरी से मिटटी बाहर न आये.
खेती की तैयारी
खेती की तैयारी परंपरागत तरीके से ही की जाती है केवल इतना ध्यान रखा जाता है की ज़मीन समतल हो. पौध रोपण के 12 से 24 घंटे पूर्व खेत की तैयारी करके एक से तीन सेमी से ज्यादा पानी खेत में नहीं रखा जाता है. पौधा रोपण से पूर्व खेत में मार्कर से 10X10 इंच की दूरी पर निशान लगाया जाता है. पौधे के बीच उचित लाइन बना ली जाती है. इससे निशान बनाने में आसानी होती है. निशान लगाने का काम पौधा रोपण से 6 घंटे पूर्व किया जाता है.
नर्सरी में पौधा उठाने का तरीका
इसके अंतर्गत 15 दिनों के पौधे को रोपा जाता है, जब पौधे में 2 पत्तियां निकल आती है. नर्सरी से पौधों को निकालते समय इस बात की सावधानी रखी जाती है की पौधों के तने व जड़ के साथ लगा बीज न टूटे व एक-एक पौधा आसानी से अलग करना चाहिए और पौधे को 1 घंटे के अंदर लगाना चाहिए.
पौधा लगाने की विधि
पौधा रोपण के समय हाथ के अंगूठे एवं वर्तनी अंगुली का प्रयोग किया जाता. खेत में डाले गए निशान की प्रत्येक चौकड़ी पर एक पौधा रोपा जाता है. नर्सरी से निकाले पौधे की मिटटी धोए बिना लगाएं और धान के बीज सहित पौधे को ज्यादा गहराई पर रोपण नहीं किया जाता है. रोपाई के अगले दिन हलकी सिंचाई भी की जाती है.
खरपतवार का नियंत्रण
इस विधि में प्रभावशाली खरपतवार नियंत्रण के लिए हाथ से चलाये जाने वाले विड़रों का इस्तेमाल किया जाता है. वीडर चलने से खेत की मिटटी हलकी हो जाती है और उसमे हवा का आवागमन ज्यादा हो जाता है. इसके अतिरिक्त खेतों में पानी न भरने देने की स्थिति में खरपतवार उगने को उपयुक्त वातावरण मिलता है. इस खरपतवार को अगर ज़मीन में दबा दिया जाये तो यह खाद का काम करती है. पौधे रोपण के 15-15 दिनों के अंतराल में वीडर चलाये जाने पर मिटटी में जीवाणुओं की क्रिया में वृद्धि होती ही और पौधों को अधिक मात्रा में पोषण मिलता है.
सिंचाई एवं जल प्रबंधन
इस विधि में खेत में पौध रोपण के बाद इतनी ही सिंचाई की जाती है जिससे पौधों में नमी बनी रहे. परंपरागत विधि की तरह खेत में पानी भर कर रखने की आवश्यकता नहीं होती.

कल्लों का निकलना
18 से 46 दिनों में धान के पौधे से सबसे ज्यादा कल्ले निकलते हैं क्योंकि इस समय में पौधों को धूप, हवा व पानी पर्याप्त मात्रा में मिलता है. वीडर के एक बार के प्रयोग से 15 से 25 कल्लों की संख्या प्राप्त हुई परन्तु उसके 3 बार के उपयोग से 1 पौधे से अधिकतम 80 कल्लों की प्राप्ति हुई.
रोग व किट प्रबंधन
इस विधि से रोग व किटों का प्रकोप कम होता है क्योंकि एक पौधे से दूसरे पौधे की दूरी ज्यादा होती है. जैविक खाद का उपयोग भी इसमें सहायक है. कई प्राकृतिक तरीके और जैविक कीटनाशक भी कीट प्रबंधन के लिए उपयोग किये जाते हैं. कटाईपौधे की कटाई का समय पौधे के ऊपर निर्भर करता है. जब पौधे का तना हरा रहता है और बालियाँ पक जाती हैं तब कटाई की जाती है. इस समय बालियों की लम्बाई और दानों का वजन परंपरागत विधि के मुकाबले ज्यादा होता है और खाली दाने की संख्या कम होती है.

श्री विधि से ज्यादा उत्पादन के लिए 10 क्रमवार महत्वपूर्ण क्रियाकल्प
1.बीज दर 2 किलो/ एकड़ नया बीज
2.बज का निखारण एवं बीज का सन्शोधन/ (कार्बेनडाजाईम)
3.खाद के साथ जामें से ऊँची नर्सरी
4.नवजात पौधा 8-15 दिनों वाला
5.मिटटी लगे पौधे कास एक घंटे के अंदर रोपाई
6.वर्गाकार रोपाई 8-10 इंच की दूरी पर
7.वीडर मशीन द्वारा कम से कम दो बार निकाई गुड़ाई पहला 20 दिनों के अंदर
8.40 किलो डी.ए.पी. और 35 किलो एम.ओ.पी. और 2 किलो खल्ली (समतलीकरण के समय), पहले निकाई गोड़ाई के समय 10 किलो यूरिया, दूसरे निकाई गोड़ाई के बाद 15 कील एवं 15 किलो एम्.ओ.पि. धान के फूल के समय.
9.कीट प्रबंधन संगठन या संस्था अपने क्षेत्र के 5 से 10 गांवों के सर्वेक्षण कर रोग एवं कीट की पहचान कर अगले बैठक में प्रतिवेदन प्रस्तुत करना चाहिए.
10.उत्पादन का आंकड़ा जमा करने की प्रक्रिया 10 प्रतिशत किसान की.

श्री विधि से लाभश्री विधि से किसानों को कई लाभ मिलते हैं, जैसे की बीज की संख्या कम लगती है (एक एकड़ में 2 किलो) और पानी भी कम लगता है. इस विधि में मजदूर भी कम ही लगते हैं. परंपरागत तरीके की अपेक्षा खाद एवं दवा कम लगता है, प्रति पौधे कल्ले की संख्या ज्यादा होती है, बालिगों में दानों की संख्या ज्यादा होती है, दानों का वजन ज्यादा होता है और दो गुना उपज होती है.